भारतीय दंड न्याय प्रणाली में BNSS 2023 के महत्वपूर्ण सुधार: एक विस्तृत विश्लेषणात्मक अध्ययन


 भारतीय दंड न्याय प्रणाली में BNSS 2023 के महत्वपूर्ण सुधार: एक विस्तृत विश्लेषणात्मक अध्ययन

लेखक: अभिषेक जाट, अधिवक्ता

प्रस्तावना

भारतीय दंड न्याय प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन लाने के उद्देश्य से भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) 2023 में  महत्वपूर्ण सुधार किए गए हैं। ये सुधार पुरानी दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की कमियों को दूर करने और न्याय प्रणाली को आधुनिक, कुशल तथा पारदर्शी बनाने के लिए किए गए हैं। प्रस्तुत लेख में इन सुधारों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।

समयबद्ध विचारण (टाइम-बाउंड ट्रायल्स)

धारा 258 और 346: BNSS में पहली बार गंभीर अपराधों के लिए निश्चित समय-सीमा निर्धारित की गई है। जघन्य अपराधों (हाइनस ऑफेंसेज) के मामलों का निपटारा अब अधिकतम दो वर्षों के भीतर करना अनिवार्य किया गया है। इस प्रावधान का उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया में अनावश्यक विलंब को कम करना है, जिससे न्याय की त्वरित प्राप्ति सुनिश्चित हो सके।

यह सुधार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979) मामले में दिए गए निर्णय के अनुरूप है, जिसमें न्यायालय ने कहा था कि "शीघ्र विचारण किसी भी आरोपी का मौलिक अधिकार है"। इसके अतिरिक्त, अरुल राज बनाम तमिलनाडु राज्य (2010) में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक विलंब को "न्याय से इनकार" के समान माना था। इस नए प्रावधान के अंतर्गत, न्यायालयों को अब विशिष्ट समय-सीमा का पालन करना होगा, जिससे न्यायिक बकाया में कमी आएगी और अभियुक्तों को त्वरित न्याय मिलेगा।

इलेक्ट्रॉनिक प्रथम सूचना रिपोर्ट (ई-एफआईआर)

धारा 2(a): BNSS में "ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम" की परिभाषा के अंतर्गत डिजिटल एफआईआर का आधार प्रदान किया गया है। यह प्रावधान एफआईआर दर्ज करने की प्रक्रिया को डिजिटलीकरण की ओर ले जाता है, जिससे पीड़ितों और गवाहों को थाने जाए बिना भी अपराध की सूचना दर्ज कराने की सुविधा मिलेगी।

टी.टी. अंतोनी बनाम केरल राज्य (2001) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एफआईआर की महत्ता पर प्रकाश डाला था और इसे अपराध की "प्रथम सूचना" के रूप में परिभाषित किया था। ई-एफआईआर प्रणाली इस सिद्धांत को डिजिटल युग में विस्तारित करती है, जिससे अपराध रिपोर्टिंग में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ेगी। इस प्रावधान से पुलिस अधिकारियों द्वारा एफआईआर दर्ज करने से इनकार करने की समस्या भी कम होगी, जिसका उल्लेख लालिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2014) के मामले में किया गया था।

समन और वारंट का डिजिटल प्रेषण

समन: धारा 63; वारंट: धारा 72: BNSS के अंतर्गत अब समन और वारंट को इलेक्ट्रॉनिक रूप में जारी करने की अनुमति है। इनमें डिजिटल हस्ताक्षर और न्यायालय की मुहर होगी, जिससे न्यायिक प्रक्रिया में तेजी आएगी और इन दस्तावेजों की सेवा में होने वाले विलंब में कमी आएगी।

यह प्रावधान सुधीर वी. पारिख बनाम गुजरात राज्य (2023) के निर्णय से प्रेरित है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक प्रक्रियाओं के डिजिटलीकरण की आवश्यकता पर बल दिया था। इस सुधार से न समन तामील न होने के कारण होने वाले मुकदमों के स्थगन को कम किया जा सकेगा, और अभियुक्त व्यक्तियों का न्यायालय में उपस्थित होना सुनिश्चित किया जा सकेगा।

अन्वेषण का इलेक्ट्रॉनिक प्रलेखन

धारा 193(8) और 230: इन प्रावधानों के अंतर्गत पुलिस रिपोर्ट और अन्वेषण फाइलों को इलेक्ट्रॉनिक रूप में रखना और प्रेषित करना अनिवार्य किया गया है। यह प्रणाली मैनुअल पेपर-आधारित रिकॉर्ड की तुलना में अधिक सटीक, संग्रहणीय और पुनः प्राप्त करने योग्य होगी।

डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्वेषण प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही की आवश्यकता पर जोर दिया था। इलेक्ट्रॉनिक प्रलेखन से अन्वेषण रिकॉर्ड में छेड़छाड़ की संभावना कम होगी, और अभियोजन पक्ष और बचाव पक्ष दोनों को सूचना तक सरल पहुंच मिलेगी।

साक्षी के बयान के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग

धारा 105: अब साक्षियों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से दूरस्थ गवाही देने की अनुमति है। यह प्रावधान विशेष रूप से संवेदनशील स्थितियों में साक्षियों, जैसे यौन अपराधों के पीड़ितों, बच्चों और गंभीर खतरे में रहने वाले व्यक्तियों के लिए महत्वपूर्ण है।

स्टेट ऑफ महाराष्ट्र बनाम प्रणय कुमार शेखर (2017) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से गवाही देने की वैधता को स्वीकार किया था। वर्तमान प्रावधान इस निर्णय के अनुरूप है और न्यायिक प्रक्रिया में डिजिटल प्रौद्योगिकी के उपयोग को और विस्तारित करता है। इससे साक्षियों को न्यायालय में उपस्थित होने के लिए यात्रा करने की आवश्यकता नहीं होगी, जिससे समय और संसाधनों की बचत होगी।

त्वरित आरोप-पत्र दाखिल करना

धारा 193(3)(ii): BNSS में आरोप-पत्र (चार्ज-शीट) दाखिल करने के लिए निश्चित समय-सीमा निर्धारित की गई है। यह प्रावधान अन्वेषण प्रक्रिया में अनावश्यक देरी को रोकेगा और मुकदमे की कार्यवाही को कुशलतापूर्वक आगे बढ़ाएगा।

नीरज कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2012) के मामले में न्यायालय ने आरोप-पत्र दाखिल करने में विलंब के परिणामस्वरूप आरोपी के हक में दिए गए जमानत के निर्णय का समर्थन किया था। इस नए प्रावधान से अन्वेषण अधिकारियों को आरोप-पत्र समय पर दाखिल करने के लिए बाध्य किया जाएगा, जिससे अभियुक्तों को शीघ्र विचारण का अधिकार प्राप्त होगा।

संशोधित गिरफ्तारी प्रोटोकॉल

धारा 35: BNSS में पुलिस अधिकारियों द्वारा बिना वारंट गिरफ्तारी के लिए स्पष्ट शर्तें निर्धारित की गई हैं। यह प्रावधान मनमानी गिरफ्तारियों को कम करेगा और प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को मजबूत करेगा।

जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1994) और अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी के संबंध में विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए थे। BNSS की धारा 35 इन न्यायिक निर्णयों को संहिताबद्ध करती है और स्पष्ट करती है कि केवल निश्चित परिस्थितियों में ही बिना वारंट गिरफ्तारी की जा सकती है, जिससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा होगी।

गिरफ्तारी की डिजिटल अधिसूचना

धारा 37: इस प्रावधान के अंतर्गत गिरफ्तारी के विवरण को डिजिटल माध्यमों से नामित अधिकारियों (और अंततः परिवार के सदस्यों) को तुरंत सूचित करना अनिवार्य किया गया है। यह प्रावधान गिरफ्तारी प्रक्रिया में पारदर्शिता बढ़ाएगा और संबंधित व्यक्तियों को समय पर सूचित करना सुनिश्चित करेगा।

डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) में सर्वोच्च न्यायालय ने गिरफ्तार व्यक्ति के परिवार को सूचित करने की अनिवार्यता पर बल दिया था। BNSS का यह प्रावधान इस सिद्धांत को आगे बढ़ाता है और डिजिटल प्रौद्योगिकी का उपयोग करके इसे अधिक कुशल और प्रभावी बनाता है।

सरलीकृत जमानत प्रक्रिया

धारा 83: BNSS में छोटे या गैर-संज्ञेय अपराधों के लिए जमानत प्रक्रिया को सरल और त्वरित बनाया गया है। इससे विचारण-पूर्व हिरासत में कमी आएगी और जेलों में भीड़भाड़ कम होगी।

हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979) और मोतीलाल सराफ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2021) के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत को नियम और जेल को अपवाद माना था। BNSS की धारा 83 इस सिद्धांत को क्रियान्वित करती है और विशेष रूप से कम गंभीर अपराधों के लिए जमानत प्रक्रिया को सरल बनाती है।

सुदृढ़ साक्षी संरक्षण ढांचा

धारा 398: BNSS में साक्षियों की सुरक्षा के लिए व्यापक उपाय पेश किए गए हैं, जिनमें गुमनामी, पुनर्वास और बढ़ी हुई सुरक्षा शामिल है। पुरानी CrPC में ऐसा कोई समर्पित साक्षी संरक्षण प्रावधान नहीं था।

माहेश्वर अग्रवाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) के मामले में न्यायालय ने साक्षी संरक्षण की आवश्यकता पर बल दिया था। BNSS की धारा 398 इस आवश्यकता को पूरा करती है और साक्षियों को धमकी और नुकसान से बचाने के लिए ठोस प्रावधान करती है, जिससे न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता सुनिश्चित होगी।

इलेक्ट्रॉनिक प्रक्रिया सेवा

धारा 64: इस प्रावधान के अंतर्गत कानूनी दस्तावेजों (जैसे समन और नोटिस) को इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रेषित करने की अनुमति दी गई है। इससे विलंब में काफी कमी आएगी और कार्यक्षमता बढ़ेगी।

विपिन कुमार शर्मा बनाम हरियाणा राज्य (2019) के मामले में न्यायालय ने कानूनी दस्तावेजों की सेवा में होने वाले विलंब के कारण न्यायिक प्रक्रिया में हो रही देरी पर चिंता व्यक्त की थी। BNSS का यह प्रावधान प्रक्रिया सेवा को आधुनिक और प्रभावी बनाकर इस समस्या का समाधान करता है।

विशेष कार्यपालक मजिस्ट्रेट की विस्तारित भूमिका

धारा 15: BNSS में नामित अधिकारियों (अधीक्षक रैंक से नीचे नहीं) को विशिष्ट मामलों के निपटारे के लिए विस्तारित न्यायिक कार्य सौंपे गए हैं। इससे मामलों का त्वरित निष्पादन होगा और न्यायालयों पर बोझ कम होगा।

राधाकांत सेठी बनाम ओडिशा राज्य (2018) के मामले में विशेष मजिस्ट्रेट की नियुक्ति की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया था। BNSS की धारा 15 इस आवश्यकता को पूरा करती है और न्यायिक प्रशासन को अधिक कुशल बनाती है।

संरचित प्लीय बार्गेनिंग फ्रेमवर्क

धारा 289 से 293 (अध्याय XXIII): BNSS में प्लीय बार्गेनिंग के लिए विस्तृत, समयबद्ध प्रक्रिया स्थापित की गई है, जिसमें पीड़ित की भागीदारी के प्रावधान भी शामिल हैं। इससे मामलों का अधिक कुशलतापूर्वक निपटारा होगा और न्यायालयों पर बोझ कम होगा।

मोहम्मद साकिर नज़ीर बनाम गुजरात राज्य (2017) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्लीय बार्गेनिंग के महत्व को स्वीकार किया था। BNSS की धारा 289-293 इस प्रणाली को और अधिक व्यवस्थित बनाती है और पीड़ित को भी प्रक्रिया में शामिल करती है, जिससे सभी हितधारकों के हितों की रक्षा होगी।

छोटे अपराधों के लिए बिना वारंट गिरफ्तारी पर प्रतिबंध

धारा 35(2): BNSS में स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया गया है कि केवल गंभीर अपराधों (जैसे सात वर्ष से अधिक की सजा वाले अपराध) के लिए ही बिना वारंट गिरफ्तारी की जा सकती है। यह प्रावधान व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करेगा और मनमानी गिरफ्तारियों को रोकेगा।

अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने छोटे अपराधों के लिए गिरफ्तारी की आवश्यकता पर पुनर्विचार करने का आह्वान किया था। BNSS की धारा 35(2) इस न्यायिक सिफारिश को संहिताबद्ध करती है और अनावश्यक गिरफ्तारियों पर रोक लगाती है।

स्पष्ट रूप से परिभाषित हिरासत विस्तार

धारा 58: BNSS में हिरासत की अवधि पर स्पष्ट सीमाएं निर्धारित की गई हैं (मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना 24 घंटे से अधिक नहीं)। यह प्रावधान त्वरित न्यायिक समीक्षा और हिरासत में लिए गए व्यक्तियों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा।

शीला बर्से बनाम महाराष्ट्र राज्य (1983) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस हिरासत पर न्यायिक निगरानी के महत्व पर बल दिया था। BNSS की धारा 58 इस सिद्धांत को मजबूत करती है और हिरासत विस्तार के लिए स्पष्ट मानदंड निर्धारित करती है।

समन का डिजिटल सत्यापन

धारा 63: BNSS के अनुसार, इलेक्ट्रॉनिक रूप से जारी किए गए समन पर डिजिटल हस्ताक्षर और आधिकारिक न्यायालय की मुहर होनी चाहिए। यह प्रावधान दस्तावेजों की प्रामाणिकता सुनिश्चित करेगा और धोखाधड़ी के जोखिम को कम करेगा।

सॉलिड ग्रीनटेक लिमिटेड बनाम दिल्ली राज्य (2022) के मामले में न्यायालय ने कानूनी दस्तावेजों की प्रामाणिकता के महत्व पर प्रकाश डाला था। BNSS की धारा 63 इस आवश्यकता को पूरा करती है और डिजिटल युग में दस्तावेजों की सत्यता सुनिश्चित करती है।

"घोषित अपराधियों" के लिए स्पष्ट मानदंड

धारा 356: BNSS में किसी व्यक्ति को घोषित अपराधी (प्रोक्लेम्ड ऑफेंडर) नामित करने के मानदंडों को संशोधित किया गया है। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि बार-बार अपराध करने वाले या गंभीर अपराधियों पर पुरानी व्यवस्था की तुलना में अधिक कड़ाई से नियंत्रण किया जाए।

कैलाश चंद्र सक्सेना बनाम दिल्ली पुलिस (2020) के मामले में घोषित अपराधियों के नियंत्रण की आवश्यकता पर बल दिया गया था। BNSS की धारा 356 इस आवश्यकता को पूरा करती है और घोषित अपराधियों के वर्गीकरण के लिए अधिक स्पष्ट मानदंड प्रदान करती है।

विचारण-पूर्व हिरासत पर सुदृढ़ न्यायिक निगरानी

धारा 57-58: BNSS में विचारण-पूर्व हिरासत की न्यायिक समीक्षा के लिए स्पष्ट प्रक्रियाएं निर्धारित की गई हैं। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि हिरासत में लिए गए व्यक्तियों को आवश्यकता से अधिक समय तक नहीं रखा जाए और उचित प्रक्रिया का पालन किया जाए।

सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन (1979) और उपेंद्र बक्सी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1986) के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने विचारण-पूर्व हिरासत पर न्यायिक निगरानी के महत्व पर बल दिया था। BNSS की धारा 57-58 इन न्यायिक सिद्धांतों को संहिताबद्ध करती है और हिरासत की न्यायिक समीक्षा के लिए स्पष्ट प्रक्रियाएं निर्धारित करती है।

संशोधित मौद्रिक दंड (जुर्माना)

धारा 23: BNSS में लगाए जा सकने वाले अधिकतम जुर्माने की राशि बढ़ा दी गई है (उदाहरण के लिए, मजिस्ट्रेट-स्तरीय आदेशों के लिए 50,000 रुपये तक)। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि मौद्रिक दंड वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों को प्रतिबिंबित करें।

विनोद कुमार बनाम दिल्ली राज्य (2022) के मामले में न्यायालय ने अपराध की गंभीरता के अनुपात में आर्थिक दंड लगाने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला था। BNSS की धारा 23 इस सिद्धांत को क्रियान्वित करती है और मौद्रिक दंड को अधिक प्रासंगिक और प्रभावी बनाती है।

निष्कर्ष

BNSS 2023 में किए गए  प्रमुख सुधार भारतीय दंड न्याय प्रणाली को आधुनिक, कुशल और पारदर्शी बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। ये सुधार न केवल प्रक्रियात्मक दक्षता बढ़ाएंगे, बल्कि नागरिकों के अधिकारों की भी बेहतर सुरक्षा सुनिश्च

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